कुछ लोग अपनी आदत से मजबूर होते हैं तो कई मजबूरी को ही अपनी आदत बना लेते हैं ।
मैं हिमाचल के एक छोटे से गाँव का निवासी हूँ । महानगरों की चहल- पहल से कोसों दूर, प्रकृति से समृद्ध इस छोटे से गाँव की मिट्टी, भारतवर्ष की सुनहरी महक से परिपूर्ण है । शिवालिक श्रृंखला के पर्वतों से घिरा हुआ ये इलाका,भगवान द्वारा, बेइन्तेहा खूबसूरती से नवाज़ा गया है । दुनिया में अगर कहीं जन्नत है, तो वो है इस छोटे से गाँव की वादियों में। लेकिन, जहाँ एक ओर हम सब देश की आर्थिक प्रगति और विकास की बात करते हैं वहीँ दूसरी तरफ हम सब सामाजिक दृष्टिकोण से मानसिक विकास को नकारते हैं । कई बार, असमंजस में सोचता हूँ कि आखिर ''तरक्की' शब्द की सही मायने में क्या परिभाषा है । क्या गावों को महानगरों में परिवर्तित करना प्रगति है, क्या बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करना तरक्की है,क्या पैसा कमाना तरक्की है या फिर सोच की धारणाओं में विकास लाना तरक्की' है ? हाली में गाँव के एक सरकारी विद्यालय में , मैंने और मेरे भाई ने एक छोटा सा सामाजिक-मानसिकता आधारित समारोह संगठित किया । हैरानी की बात तो यह है कि जैसे ही हमने 'जाति-प्रथा, सामान्य-हीनता जैसे मुद्दों पर बात करना चाही, तो समारोह-हॉल में बैठे एक अध्यापक अपनी कुर्सी छोड़, दबे हुए ग़ुस्से में बाहर निकल गए। शायद उन्हें मेरी ये बात कि "पंडित, ठाकुर और हरिजन सब एक हैं " कुछ ज्यादा ही खली। हम सब को ऐसे लोगों के बेबुनियाद विचारों पर कड़ी असहमति दिखाने की जरूरत है | एक बार तो मज़ाक-मज़ाक में ही सही, इसी मुद्दे को लेकर मैं अपने ही किसी रिश्तेदार से लड़ पड़ा। भाईसाहब के मुताबिक़ जाति के आधार पर सामाज का आवंटन, बरसों से चली आ रही परंपरा है। मैं तो ये ही कहूँगा कि परंपरा को आदत मत बनाइये और आदत को बहाना । मैं राजपूत हूँ या फिर शुद्र, इससे क्या फर्क पड़ता है। क्या हम सब इंसान नहीं।
आज हम सब को आर्थिक विकास से ज्यादा सामाजिक विकास की आवश्यकता है। इंसान को इंसानियत से नापिए, उसके औदे, जाति, कोम या पैसे के संग्रह से नहीं । हमें ओवैसी जैसे नकारात्मक सोच रखने वाले पुतले नहीं चाहिए, हमें जरूरत है तो सिर्फ सच्चे, पारदर्शानिक इंसान की।कई बार गुस्से और उदासी को शब्दों में बयान करना बेहद मुश्किल हो जाता है - अकबरुद्दीन ओवैसी के भड़काऊ भाषण को सुनकर, न जाने क्यों गुस्सा कम और उदासी ज्यादा आती है । ऐसे नेता तो अजमल कसाब से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं । हम हिन्दू हैं या मुस्लमान , इससे क्या फर्क पड़ता है ओवैसी जी, क्या ये काफी नहीं की हम सब इंसान हैं । मानसिकता हमारी हर आदत की जड़ है,नीव है । आज जातिवाद एक प्रथा कम और आदत ज्यादा बन गई है, आज इंसानियत मात्र केवल एक मजबूरी बन कर रह गयी है। क्यों ?
क्यों ज़ज्बातों को बातों से तोला जाता है
क्यों हर प्यार को ईमान से नहीं, इनकार से मोला जाता है
क्यों हर मोती-समान आंसू को पानी समझा जाता है
क्यों हर इज़हार को कहानी समझा जाता है
क्यों लभों की मुस्कान को हास्य बनाया जाता है
क्यों हर इकरार को तकरार में बदला जाता है
क्यों मोहब्बत को मिलाप कम, अभिशाप समझा जाता है
क्यों हर फरमान को पैगाम कम,ऐलान समझ, सुनाया जाता है
क्यों हर अरमान को जिन्दा दफनाया जाता है
हिमाचल प्रदेश