प्रेम या आकर्षण ........
प्रेम,एक शब्द , अजूबा है आखिरकार यह अपनी परिभाषा पटल की गहरइयो तक बसाये हुआ है |जितनी जटिल इसकी परिभाषा है उतना ही कठिन इसका सफ़र | प्रेम एक अहसास की कहानी है जो थमा रहे तो समुद्र की तरह,जिसमे लहरे उतार - चढाव लेती रहती है लेकिन जब ये लहरे उफान लेती ह तो नईया और खिवैयाँ को तो तबाह कर ही देती है अपितु तट को भी नहीं छोडती|
वर्तमान के परिपेक्ष्य मे,प्रेम का अपना स्वरुप बदल चुका है अर्थात प्रेम अपनी परिभाषा से कही दूर हिलोरे लेते हुए नजर आता है| वही आज प्रेम सिर्फ "आकर्षण" का पर्याय बन गया है जो इसमें सफ़र करने वालो को एक लक्ष्य दे देता हैं अर्थात प्रेम के इस बहरूपिये आकर्षण की दूसरी चाल ग्रसित जन को उसे (जिसने आकर्षण के जंजाल मे बांधा है ) पाने की इच्छा जाग्रत कर देता है |सही मायनो मे इच्छा प्रेम का गला घोटने जैसा है | सार यह है की आकर्षण प्रेम का पर्याय नहीं अपितु प्रेम का परवान चढाने का पहला कदम है जो समय के साथ प्रेम की परिभाषा को परिबद्ध करता है|
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